Sunday 4 September 2016

न जाने कहाँ चले गए वे गुरुजन

 












न जाने कहाँ चले गए  वे शिक्षकगण 
मेरे उस विद्यालय के 
नहीं मिलता है कोई उनमें से 
जब जाता हूँ उनकी खोज में 
क्या सभी आदरणीय बह गए
 प्रलय में समय के ?



न जाने कहाँ चले गए वे गुरुजन 
मेरे उस महाविद्यालय के 
उनमें से कोई श्रद्धाभाजन 
वहाँ नहीं करते हैं अब शिक्षण 
पर वे जीवित हैं मुझ में , उनके स्वर 
प्रतिध्वनित नभ में मेरे हृदय  के !






 

Xavier Bage

Mon, 05 September, 2016



Sunday 21 August 2016

ये गुस्सैल हवा जाने क्या खबर लाए !




















वो क्यों अभी तक घर को न आए?

तीन दिन पहले निकले थे नाव में 
एक दिन में लौट आते थे गाँव में 
पड़ोस के मछुवारों के साथ- साथ 
दिन गुजर गया, बीत गई अब रात 
बेचैन खाड़ी की तरह मन घबराए !

.वो क्यों अभी तक घर को न आए?

मछलियाँ रहती हैं उन लहरों के पार 
जाना पड़ता है वहाँ  खतरों पर सवार 
ज़िन्दगी के  लिए खेलने मौत से जूआ 
पॉंव तले होता है हमेशा अतल कूआँ 
ये गुस्सैल हवा जाने क्या खबर लाए !

वो क्यों अभी तक घर को न आए ?

Xavier Bage
Sun, Aug 21, 2016




Sunday 14 August 2016

मुँह पर एक बात होती है दिल में एक और



 


















मुँह पर एक बात होती है दिल में एक और 

दुनिया में इस तरह चला है झूठ का दौर !



वो  लोग बड़े-बड़े जो ऊँची वेदियों पर खड़े 

भगवान की तरह जिन्हें पूजे जाने के हौसले 

जुल्म के राही थे वे, छीने गरीब के कौर !



दूसरों के नुक्स देखते हैं छुपाके अपने दाग 

अपनी तारीफ ही करते हैं गाकर स्तुति -राग 

कोई भी भाँप सकता है सच्चाई करके गौर !


कहीं से भी लूट लिया, कहीं से भी लिया खींच 

औरों को चोर बताकर की चोरी आँखें मीच 

देख दुनिया की रीत दीप देख यहाँ का तौर !



Xavier Bage

Mon,   15 August 2016.

 image: pixabay





Thursday 11 August 2016

बाढ़ ने ढाया कहर





















 क्या गाँव, क्या शहर,

बाढ़ ने ढाया  कहर !



डूबी भैंस ,  डूबी गाय,

दुखी गरीब को दी हाय,

डूबी  झोपड़ी, डूबी  डगर।



बह गई बस, बह गई कार ,

मोटरबाइक संग बहा  सवार,

साइकिल अटकी बीच भँवर।



धुली खेत, मिट गई मेड़,

नदी तीरे झुक गया पेड़,

भरे नाले, भर गई  नहर।



चूल्हे में न जली आग ,

बच्चे भूखे रहे हैं जाग ,

गई सुबह,  गई दोपहर। 

Xavier Bage

Thurs, Aug 11, 2016

Saturday 6 August 2016

वो बुढ़िया जूठन -बर्तन धोनेवाली

















वो बुढ़िया जूठन -बर्तन धोनेवाली 
झाड़ू-पोंछा लगानेवाली 
दुबली-पतली काया पर 
उसे विधवा प्रमाणित करती 
सफ़ेद धोती लपेटे
इस राह से गुजरा करती थी 
ढुलमुलाते क़दमों से 
नहीं दिखाई दे रही है 
कई दिनों से इधर 
न जाने क्यों!

इस उम्र में क्यों ऐसा काम 
उसको करना पड़ रहा है ?
इस अवस्था में जब उसे घर पर 
नाती-नतनी के  साथ चाहिए खेलना 
क्या उसका कोई बेटा नहीं 
उसे घर में रखकर खिलाने को 
क्या कोई बेटी-जमाई नहीं 
दो मुट्ठी भात दिलाने  को ?


ज़िन्दगी की लड़ाई अकेली लड़ने को मज़बूर 
लड़ते-लड़ते थक गई होगी 
शायद बीमार पड़ गयी हो 
 कमज़ोर तो थी ही 
शायद और भी कमज़ोर हो गयी हो 
पूछा मैंने एक पड़ोसी से 
वो बोला, " अरे,  वो बुढ़िया नहीं आ रही है 
हम भी मुश्किल में हैं उसके चलते 
हमारी वाइफ बर्तन धो नहीं सकती। "


नज़दीक के स्वास्थ्य -केंद्र में पूछा 
तो पता चला कि वो भर्ती थी चार दिन 
उसके बाद चली गई दुनिया से 
ऐसी जगह जहाँ उसे जूठन नहीं धोना पड़ेगा 
क्योंकि अब उसे खाने की भी 
ज़रूरत नहीं है - इसलिए 
अब पेट के लिए अपमानित 
नहीं होना पडेगा उसे!

Xavier Bage
Sat, Aug 6, 2016