Sunday 31 July 2016

बादलों को आने दो, पृथ्वी प्यासी है



 



















बादलों को   आने  दो, पृथ्वी प्यासी है 
आशीष की बूंदों बिन कितनी उदासी है !

आकाश की ओर ताकते हैं 
पेड़-पौध , खेत, मेड़ 
घास नहीं चारागाह में 
मिमियाती हैं बकरी-भेड़ 
नदी बन गयी नाली , गंदगी की निकासी है 
आशीष की बूंदों बिन कितनी  उदासी है !


मानव के इतिहास में 
आ गया है वह दौर 
पैसा-धतूरा खा-खाकर 
जगत को आया बौर 
इस मर्ज़ की दवा नहीं, धन ही काबा -काशी है 
आशीष की बूंदों बिन कितनी उदासी है !

मन में ही मिलावट है 
जनम के सर मौत का हाथ 
किसी का जीवन चला दो दिन 
किसी को मिले दिन सात 
ताज़ा खिला फूल चमन में, दो पल में बासी है 
आशीष की बूंदों बिन कितनी उदासी है !

Xavier Bage
Mon, Aug 01, 2016

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