Sunday 10 April 2016

ओ सूरज, क्यों उगल रहे हो आग ?







ओ सूरज, क्यों उगल रहे हो आग ?



ओ सूरज क्योंकर इतना
उगल रहे हो आग ?
पृथ्वी के प्राणियों से तुम्हें
क्यों हो गया है राग ?

पेड़ों की डालें झुकने लगी हैं
पत्तों की साँसें रुकने लगी हैं
फूलों का दम घुट चुका है
तड़प रहे हैं कोयल और काग।

तपती धरती जलाती है पाँव
प्यासा है खेत, प्यासा है गाँव
कुआँ भी उदास- उदास  है
नदी के मुख पर दिख रहा झाग।

काश कि होते मेघ दो एक
बरसती आग से देते जो छेक
शाम तक  होता कुछ आराम
बच जाते किसी तरह लोग-बाग़।


ज़ेवियर बेज

रवि , अप्रैल 10 , 2016

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