Thursday 21 April 2016

ओ चाँद , ओ हसीन आसमानी मुसाफिर

 













ओ चाँद ,  ओ हसीन  आसमानी मुसाफिर
तुझसे है मेरा जन्मजात लगाव
मेरा शासक ग्रह है तू
तेरे बिन न चल सकेगी
मेरे जीवन की नाव !

यह तो सभी जानते हैं
पृथ्वी तुझको खींचती है
तेरी मदिर-मधुर चाँदनी
हर प्राण को सींचती है
लेकिन मुझसे है  क्यों 
तेरे मन का खिंचाव?

दूर से हँसा करता है 
कभी  न आता है करीब 
अपने इस चातक कवि को 
क्यों रखा है भूखा ग़रीब ?
चली न जाए यह दुबली जान 
सह-सह दुःख के दबाव !

कहते हैं तेरी धरती में 
न हरियाली है न पानीहै 
न पेड़ों की डाल न पंछी हैं 
न नदियों की रवानी है 
क्या इसीलिए बेरहमी से
पूनम-अमस जताते प्रभाव ?


ज़ेवियर बेज़ 

Fri, April 22, 2016

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