दुनिया देखता हूँ बैठे -बैठे राह किनारे
दिन कट जाते हैं इसी काम के सहारे !
गुजरते हैं पास से कई तरह के पाँव,
शहर की ओर जाते हुए छोड़के गाँव।
पीछे रह गए हैं घर व खेत बिचारे !
प्रेमी जोड़े चलते हैं हाथ में डाले हाथ ,
वादा वे करते हैं जीवन भर का साथ।
कुछ को याद रहे कुछ ने सहज बिसारे !
रंग -विरंग के झंडे लिए मचाते हुए शोर,
जन-सेवकों के दल में जुड़ जाते हैं चोर।
जनता खड़ी रह जाती है अपने हाथ पसारे !
क्यों बवाल है जो गरीब लिए गए लूट,
हल्ला तब करना जब लुटे पहने हुए सूट.
इन्साफ भी दरअसल एक आँख निहारे !
ज़ेवियर बेज़
Fri, April 15, 2016
No comments:
Post a Comment