Thursday 14 April 2016

दुनिया देखता हूँ बैठे -बैठे राह किनारे

 















दुनिया देखता हूँ बैठे -बैठे राह किनारे 
दिन कट जाते हैं इसी काम के सहारे !

 गुजरते हैं पास से कई तरह के पाँव,
शहर की ओर जाते हुए छोड़के  गाँव।
पीछे रह गए हैं घर व खेत बिचारे !

प्रेमी जोड़े चलते हैं हाथ में डाले हाथ ,
वादा वे  करते हैं जीवन भर का साथ।
कुछ को याद रहे कुछ ने सहज बिसारे !


रंग -विरंग के झंडे लिए मचाते हुए शोर,
जन-सेवकों के दल में जुड़ जाते हैं चोर।
जनता खड़ी रह  जाती है अपने हाथ पसारे !


क्यों बवाल है जो गरीब लिए गए लूट,
हल्ला तब करना जब लुटे पहने हुए सूट.
इन्साफ भी दरअसल एक आँख निहारे !



ज़ेवियर बेज़ 
Fri, April 15, 2016

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