इक नदी गुजरती थी हमारे गाँव से होकर
हम बच्चे उसमे नहाते थे पानी में सो-सोकर
अब न वो धारा रही और न रही वो लहरें
किनारे के पेड़ मुरझा गए दिन-रात रो-रोकर
बच्चों का क्या दोष जो नीतिहीन हो गए
जब बड़े ही पी गए सब नीतियां धो -धोकर
बौने कैसे हो गए इन पहाड़ों के बासिन्दे
ज़िन्दगी चढ़ती-उतरती है मुसीबतें ढो-ढोकर
पानी सूख रहा है अब इन्सानों के अन्दर ही
आओ पेड़ लगाते जाएँ प्रेम -बीज बो-बोकर
ज़ेवियर बेज़
बुध, 20 अप्रैल 2016
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