Tuesday 19 April 2016

इक नदी गुजरती थी हमारे गाँव से होकर

 















इक नदी गुजरती थी हमारे गाँव से  होकर
हम बच्चे उसमे नहाते थे पानी में सो-सोकर

अब न वो धारा रही और  न रही वो लहरें
किनारे के पेड़ मुरझा गए दिन-रात रो-रोकर

 बच्चों का क्या दोष जो  नीतिहीन हो गए
जब  बड़े ही पी गए सब  नीतियां धो -धोकर

बौने कैसे हो गए इन पहाड़ों के बासिन्दे
ज़िन्दगी चढ़ती-उतरती है मुसीबतें ढो-ढोकर

पानी सूख रहा है अब  इन्सानों के अन्दर ही
आओ पेड़  लगाते जाएँ प्रेम -बीज बो-बोकर

ज़ेवियर बेज़
बुध, 20 अप्रैल 2016

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