Tuesday 10 May 2016

मुसीबतों की चक्की में



 
















मुसाफ़िरों की  रेलमपेल है 
रेल गाड़ी के कमरों में 
चमड़ी  से चमड़ी घिस रही 
मुसीबतों की चक्की में पिस रही 

सब अपने-अपने दर्द लिए 
सब अपने-अपने मर्ज़ लिए 
अपनी-अपनी भठ्ठियों  में जल रहे 
तिल-तिल कर पल-पल जल रहे 

कब निकले थे घर से परवाने 
कब वापस पहुंचेंगे कौन जाने 
क्या ठिकाना रास्ते की ज़िन्दगी का 
पुरानी  साईकिल की ट्यूब लीकवाली का 

 सर्दी की धार गर्मी का त्रास है 
 सब सहना है जब तक साँस है 
 एक स्टेशन पर गाड़ी रुक जाना है 
 चाहो न चाहो वहीँ उतर जाना है 

                Xavier Bage
                Mon, 9 may 2016

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