मुसाफ़िरों की रेलमपेल है
रेल गाड़ी के कमरों में
चमड़ी से चमड़ी घिस रही
मुसीबतों की चक्की में पिस रही
सब अपने-अपने दर्द लिए
सब अपने-अपने मर्ज़ लिए
अपनी-अपनी भठ्ठियों में जल रहे
तिल-तिल कर पल-पल जल रहे
कब निकले थे घर से परवाने
कब वापस पहुंचेंगे कौन जाने
क्या ठिकाना रास्ते की ज़िन्दगी का
पुरानी साईकिल की ट्यूब लीकवाली का
सर्दी की धार गर्मी का त्रास है
सब सहना है जब तक साँस है
एक स्टेशन पर गाड़ी रुक जाना है
चाहो न चाहो वहीँ उतर जाना है
Xavier Bage
Mon, 9 may 2016
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